हर पल के गुंजन की स्वर-लय-ताल तुम्ही थे,
इतना अधिक मौन धारे हो, डर लगता है,
तुम कि नवल- गति अंतर के उल्लास-नृत्य थे,
इतना अधिक ह्रदय मारे हो, डर लगता है,
तुमको छू कर दसों दिशाएं, सूरज को लेने जाती थी,
और तुम्हारी प्रतिश्रुतियों पर, बांसुरियां विहाग गाती थी,
तुम कि हिमालय जैसे, अचल रहे जीवन भर,
अब इतने पारे-पारे हो डर लगता है,
तुम तक आकर दृष्टि-दृष्टि की प्रश्नमयी जड़ता घटती थी,
तुम्हें पूछ कर महासृष्टि की हर बैकुंठ कृपा बंटती थी,
तुम कि विजय के एक मात्र पर्याय-पुरुष थे,
आज स्वयं से ही हारे हो डर लगता है...!!!
Original Post : https://www.facebook.com/KumarVishwasइतना अधिक मौन धारे हो, डर लगता है,
तुम कि नवल- गति अंतर के उल्लास-नृत्य थे,
इतना अधिक ह्रदय मारे हो, डर लगता है,
तुमको छू कर दसों दिशाएं, सूरज को लेने जाती थी,
और तुम्हारी प्रतिश्रुतियों पर, बांसुरियां विहाग गाती थी,
तुम कि हिमालय जैसे, अचल रहे जीवन भर,
अब इतने पारे-पारे हो डर लगता है,
तुम तक आकर दृष्टि-दृष्टि की प्रश्नमयी जड़ता घटती थी,
तुम्हें पूछ कर महासृष्टि की हर बैकुंठ कृपा बंटती थी,
तुम कि विजय के एक मात्र पर्याय-पुरुष थे,
आज स्वयं से ही हारे हो डर लगता है...!!!
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